नई दिल्ली 10 जुलाई (हि.ला.)। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने आज कहा कि “भारत का वैश्विक शक्ति के रूप में उदय उसकी बौद्धिक और सांस्कृतिक गरिमा के उत्थान के साथ होना चाहिए। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि ऐसा उदय ही टिकाऊ होता है और हमारी परंपराओं के अनुकूल होता है। एक राष्ट्र की शक्ति उसकी सोच की मौलिकता मूल्यों की कालातीतता और बौद्धिक परंपरा की दृढ़ता में निहित होती है। यही सॉफ्ट पावर (सांस्कृतिक प्रभाव) है जो दीर्घकालिक होता है और आज के विश्व में अत्यंत प्रभावशाली है।”
उपराष्ट्रपति गुरुवार को नई दिल्ली में भारतीय ज्ञान प्रणाली (IKS) पर प्रथम वार्षिक सम्मेलन को संबोधित कर रहे थे।
औपनिवेशिक मानसिकता से परे भारत की पहचान को पुनः स्थापित करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा “भारत केवल 20वीं सदी के मध्य में बना राजनीतिक राष्ट्र नहीं है बल्कि यह एक सतत सभ्यता है—चेतना जिज्ञासा और ज्ञान की प्रवाहित नदी है।”
देशज ज्ञान को योजनाबद्ध ढंग से दरकिनार किए जाने की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा “देशज विचारों को केवल आदिम और पिछड़ेपन का प्रतीक मानकर खारिज करना केवल एक व्याख्यात्मक भूल नहीं थी—यह मिटाने नष्ट करने और विकृत करने की वास्तुकला थी। और अधिक दुखद यह है कि स्वतंत्रता के बाद भी यह एकतरफा स्मरण चलता रहा। पश्चिमी अवधारणाओं को सार्वभौमिक सत्य के रूप में प्रस्तुत किया गया। साफ़ शब्दों में कहें तो—असत्य को सत्य के रूप में सजाया गया।”
उन्होंने सवाल किया “जो हमारी बुनियादी प्राथमिकता होनी चाहिए थी वह तो विचार के दायरे में भी नहीं थी। हम अपनी मूल मान्यताओं को कैसे भूल सकते हैं?”
भारत की बौद्धिक यात्रा में ऐतिहासिक व्यवधानों को रेखांकित करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा “इस्लामी आक्रमण ने भारतीय विद्या परंपरा में पहला व्यवधान डाला—जहां समावेशन की बजाय तिरस्कार और विध्वंस का मार्ग अपनाया गया। ब्रिटिश उपनिवेशवाद दूसरा व्यवधान लेकर आया—जिसमें भारतीय ज्ञान प्रणाली को पंगु बना दिया गया उसकी दिशा बदल दी गई। विद्या के केंद्रों का उद्देश्य बदल गया दिशा भ्रमित हो गई। ऋषियों की भूमि बाबुओं की भूमि बन गई। ईस्ट इंडिया कंपनी को ब्राउन बाबू चाहिए थे और राष्ट्र को विचारक।”
उन्होंने कहा “हमने सोचना चिंतन करना लेखन और दर्शन करना छोड़ दिया। हमने रटना दोहराना और निगलना शुरू कर दिया। ग्रेड्स (अंक) ने चिंतनशील सोच का स्थान ले लिया। भारतीय विद्या परंपरा और उससे जुड़े संस्थानों को सुनियोजित ढंग से नष्ट किया गया।”
उपराष्ट्रपति ने कहा “जब यूरोप की यूनिवर्सिटियां भी अस्तित्व में नहीं थीं तब भारत की विश्वविख्यात विश्वविद्यालय—तक्षशिला नालंदा विक्रमशिला वल्लभी और ओदंतपुरी—ज्ञान के महान केंद्र थे। इनकी विशाल पुस्तकालयों में हजारों पांडुलिपियाँ थीं।”
उन्होंने बताया कि “ये वैश्विक विश्वविद्यालय थे जहां कोरिया चीन तिब्बत और फारस जैसे देशों से भी विद्यार्थी आते थे। ये ऐसे स्थल थे जहां विश्व की बुद्धिमत्ता भारत की आत्मा से आलिंगन करती थी।”
उपराष्ट्रपति ने ज्ञान को व्यापक रूप में समझने का आह्वान करते हुए कहा “ज्ञान केवल ग्रंथों में नहीं होता—यह समुदायों में परंपराओं में और पीढ़ियों से हस्तांतरित अनुभव में भी जीवित रहता है।”
उन्होंने बल दिया कि “एक सच्ची भारतीय ज्ञान प्रणाली को शोध में ग्रंथ और अनुभव—दोनों का समान महत्व देना होगा। संदर्भ और सजीवता से ही सच्चा ज्ञान उत्पन्न होता है।”
व्यावहारिक कदमों की आवश्यकता पर जोर देते हुए उन्होंने कहा “हमें तत्काल कार्यवाही की ओर ध्यान देना होगा। संस्कृत तमिल पाली प्राकृत आदि सभी क्लासिकल भाषाओं के ग्रंथों के डिजिटलीकरण की व्यवस्था तत्काल होनी चाहिए।”
इस अवसर पर केंद्रीय मंत्री सर्बानंद सोनोवाल जेएनयू की कुलपति प्रो. शांतिश्री धुलीपुडी पंडित प्रो. एम.एस. चैत्र (आईकेएसएचए के निदेशक) प्रज्ञा प्रवाह के अखिल भारतीय टोली सदस्य तथा अन्य गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे।